5/46/2
कहु लंकेस सहित परिवारा
।
जब श्री विभीषणजी ने अपनी बात प्रभु श्री रामजी को कही तो प्रभु की जो प्रतिक्रिया थी वह बहुत मार्मिक है । प्रभु श्री रामजी ने श्री विभीषणजी को जो पहला संबोधन किया वह लंकेश कहकर किया । इसका अभिप्राय यह है कि रावण की मृत्यु उसी समय सुनिश्चित हो गई और लंका के भावी राज्य पर प्रभु ने श्री विभीषणजी को मानो उसी समय नियुक्त कर दिया ।
5/46/दोहा
तब लगि कुसल न जीव कहुँ
सपनेहुँ मन बिश्राम । जब लगि भजत न राम कहुँ सोक धाम तजि काम ॥
जब प्रभु श्री रामजी ने श्री विभीषणजी की कुशल पूछी तो उन्होंने कहा कि प्रभु के श्रीकमलचरणों के दर्शन से और प्रभु ने अपना सेवक मान उन्हें स्वीकार किया प्रभु की इस दया के कारण अब वे कुशल हैं । एक सिद्धांत गोस्वामी श्री तुलसीदासजी श्री विभीषणजी के माध्यम से कहलवाते हैं कि जीव तब तक स्वप्न में भी कुशल नहीं है और उस जीव को तब तक स्वप्न में भी शांति नहीं मिलती जब तक वह संसार के विषयों को छोड़कर प्रभु की भक्ति नहीं करता ।
5/47/1
तब लगि हृदयँ बसत खल
नाना । लोभ मोह मच्छर मद माना ॥ जब लगि उर न बसत रघुनाथा । धरें चाप सायक कटि भाथा
॥
एक अकाट्य सिद्धांत का प्रतिपादन इस चौपाई में हुआ है । समस्त विकार जैसे लोभ, मोह, मद, मान इत्यादि जीव के हृदय में तब तक निवास करते हैं जब तक वह जीव प्रभु को अपने हृदय में भक्ति के द्वारा लाकर विराजमान नहीं करता । सिद्धांत यह है कि जब तक प्रभु हमसे दूर हैं तब तक ये सभी विकार हमारे हृदय में उपद्रव मचाते हैं । पर जब जीव भक्ति करता है और प्रभु उसके हृदय में आ बसते हैं तो सभी विकारों को स्वतः ही भागना पड़ता है ।
5/47/3
अब मैं कुसल मिटे भय
भारे । देखि राम पद कमल तुम्हारे ॥ तुम्ह कृपाल जा पर अनुकूला । ताहि न ब्याप त्रिबिध
भव सूला ॥
श्री विभीषणजी प्रभु श्री रामजी से कहते हैं कि प्रभु के श्रीकमलचरणों के दर्शन करके अब वे पूरी तरह से कुशल अनुभव कर रहे हैं क्योंकि प्रभु की शरण आकर उनके सारे भय मिट गए हैं । श्री विभीषणजी एक सिद्धांत कहते हैं कि प्रभु जिस पर कृपा करते हैं और जिस पर अनुकूल होते हैं उस पर संसार के तीनों प्रकार के ताप नहीं व्याप्ते ।
5/47/दोहा
अहोभाग्य मम अमित अति
राम कृपा सुख पुंज । देखेउँ नयन बिरंचि सिव सेब्य जुगल पद कंज ॥
श्री विभीषणजी अभिभूत होकर प्रभु श्री रामजी से कहते हैं कि जिन प्रभु का रूप ऋषियों और मुनियों के ध्यान में भी कठिनता से आता है उन प्रभु ने स्वयं हर्षित होकर उन्हें अपने हृदय से लगा लिया । श्री विभीषणजी प्रभु से कहते हैं कि प्रभु कृपा और सुख के पुंज हैं और उनका अत्यंत और असीम सौभाग्य है कि उनको प्रभु श्री ब्रह्माजी एवं प्रभु श्री महादेवजी द्वारा सेवित प्रभु के श्रीकमलचरणों के साक्षात दर्शन का लाभ मिला ।
5/48/2-3-4
तजि मद मोह कपट छल नाना
। करउँ सद्य तेहि साधु समाना ॥ जननी जनक बंधु सुत दारा । तनु धनु भवन सुह्रद परिवारा
॥ सब कै ममता ताग बटोरी । मम पद मनहि बाँध बरि डोरी ॥ समदरसी इच्छा कछु नाहीं । हरष
सोक भय नहिं मन माहीं ॥ अस सज्जन मम उर बस कैसें । लोभी हृदयँ बसइ धनु जैसें ॥
यह पूरी श्री रामचरितमानसजी की मेरी सबसे प्रिय कुछ चौपाईयां हैं । इनमें प्रभु ने बहुत बड़ी मर्म की बात बताई है । प्रभु कहते हैं कि जो जगत का द्रोही हो वह भी भय के कारण भी क्यों न हो अगर प्रभु की शरण में आ जाता है और नाना प्रकार के विकारों को त्याग देता है तो प्रभु शीघ्र ही उसे साधु के समान बना देते हैं । पूरी श्री रामचरितमानसजी की मेरी दृष्टि से सबसे महत्वपूर्ण बात प्रभु यहाँ कहते हैं कि जीव को अपने माता, पिता, भाई, पुत्र, स्त्री, शरीर, धन, घर, मित्र और परिवार की ममतारूपी डोर को बटोरकर प्रभु के श्रीकमलचरणों में बांध देना चाहिए यानी सारे सांसारिक संबंधों को भुलाकर अपने जीवन के केंद्रबिंदु में प्रभु को ले आना चाहिए । ऐसा करने का लाभ यह है कि ऐसा करने वाले के हृदय में फिर कोई इच्छा, हर्ष, शोक और भय नहीं बचता । प्रभु घोषणा करते हैं कि ऐसे सज्जन प्रभु के हृदय में वैसे बसते हैं जैसे एक लोभी के हृदय में धन बसता है ।
5/49/3-4
सुनहु देव सचराचर स्वामी
। प्रनतपाल उर अंतरजामी ॥ उर कछु प्रथम बासना रही । प्रभु पद प्रीति सरित सो बही ॥
अब कृपाल निज भगति पावनी । देहु सदा सिव मन भावनी ॥
जब
प्रभु श्री रामजी
ने श्री विभीषणजी
को अपना प्रिय
कहा तो श्री
विभीषणजी के कानों
को प्रभु के
श्रीवचन अमृत के
समान लगे ।
उन्होंने बार-बार
प्रभु के श्रीकमलचरणों
में अपना मस्तक
नवाया और अपार
हर्ष से प्रभु
से कहा कि
पहले जब वे
आए थे तब
उनके हृदय में
कुछ वासना और
कामना थी पर
प्रभु के श्रीकमलचरणों
के दर्शन से
और प्रभु की
उन पर प्रीति
देखकर अब वह
सब खत्म हो
गई । श्री
विभीषणजी ने प्रभु
को तीन संबोधनों
से संबोधित किया
और कहा कि
प्रभु चराचर जगत
के स्वामी हैं,
प्रभु शरणागत के
रक्षक हैं और
प्रभु सबके हृदय
के भीतर के
भाव को जानने
वाले हैं ।
श्री विभीषणजी ने
कृपालु प्रभु श्री रामजी
से कहा कि
अब प्रभु उन्हें
वह भक्ति दान
दें जो भक्ति
प्रभु श्री महादेवजी
को सबसे प्रिय
लगती है ।
5/49/5
मोर दरसु अमोघ जग माहीं
॥
जब श्री विभीषणजी ने प्रभु श्री रामजी से उनकी भक्ति मांगी तो प्रभु ने उन्हें भक्ति का दान दिया । फिर प्रभु ने कहा कि यद्यपि श्री विभीषणजी की इच्छा नहीं है पर फिर भी यह रीति है कि जगत में प्रभु का दर्शन कभी भी निष्फल नहीं जाता यानी बिना फल दिए नहीं रहता । इसलिए प्रभु ने श्री समुद्रदेवजी के जल से श्री विभीषणजी का राजतिलक कर दिया ।
5/49/दोहा (ख)
सोइ संपदा बिभीषनहि
सकुचि दीन्हि रघुनाथ ॥
प्रभु श्री रामजी ने बहुत सकुचाते हुए लंका का राज्य श्री विभीषणजी को दे दिया । यहाँ सकुचाना शब्द बड़ा मार्मिक और महत्वपूर्ण है । इतनी समृद्धि वाली लंका का अचल राज्य श्री विभीषणजी को देते समय भी प्रभु श्री रामजी सकुचाने लगे कि कहीं वे कम तो नहीं दे रहे । सिद्धांत यह है कि प्रभु अपने स्वभाव अनुसार बहुत देने पर भी उस उपकार को बहुत थोड़ा मानते हैं ।
5/50/1
अस प्रभु छाड़ि भजहिं
जे आना । ते नर पसु बिनु पूँछ बिषाना ॥
गोस्वामी श्री तुलसीदासजी कहते हैं कि इतनी करुणा, दया और कृपा से भरे प्रभु को छोड़कर जो जीव अन्यत्र जाते हैं वे बिना सींग और पूंछ के पशु हैं ।
5/50/4
कोटि सिंधु सोषक तव
सायक ॥
जब प्रभु श्री रामजी ने श्री विभीषणजी से श्री समुद्रदेवजी को पार करने का उपाय पूछा तो श्री विभीषणजी ने कहा कि वे प्रभु के सामर्थ्य को जानते हैं । प्रभु चाहे तो एक बाण से ही एक नहीं बल्कि करोड़ों श्री समुद्रदेवजी को सोख सकते हैं । यह प्रभु के ऐश्वर्य का दर्शन कराने वाली चौपाई है ।