5/मंगलाचरण/1
शान्तं शाश्वतमप्रमेयमनघं निर्वाणशान्तिप्रदं
ब्रह्माशम्भुफणीन्द्रसेव्यमनिशं
वेदान्तवेद्यं
विभुम्
।
रामाख्यं
जगदीश्वरं
सुरगुरुं
मायामनुष्यं
हरिं
वन्देऽहं
करुणाकरं
रघुवरं
भूपालचूड़ामणिम्
॥
गोस्वामी श्री तुलसीदासजी
श्री सुंदरकांडजी के
मंगलाचरण में सबसे
पहले प्रभु श्री
रामजी की अद्वितीय
वंदना करते हैं
। वे कहते
हैं कि प्रभु
शांताकारम हैं, अप्रमेय
हैं यानी प्रमाणों
से परे हैं
। प्रभु मोक्ष
प्रदान करने वाले
और परम शांति
देने वाले हैं
। "प्रभु श्री रामजी"
प्रभु श्री ब्रह्माजी,
प्रभु श्री महादेवजी
और प्रभु श्री
शेषजी द्वारा निरंतर
पूजित हैं ।
श्री वेदजी द्वारा
जानने योग्य केवल
प्रभु ही हैं
। प्रभु सर्वव्यापक
हैं, सभी देवों
में सबसे बड़े
हैं । प्रभु
जीव के समस्त
पापों को हरने
वाले और करुणा
की खान हैं
। प्रभु रघुकुल
में सबसे श्रेष्ठ
और राजाओं के
भी शिरोमणि राजा
हैं । गोस्वामीजी
कहते हैं कि
श्रीराम कहलाने वाले ऐसे
श्री जगदीशजी प्रभु
की वे सर्वप्रथम
वंदना करते हैं
।
5/मंगलाचरण/2
भक्तिं प्रयच्छ रघुपुङ्गव
निर्भरां
मे
कामादिदोषरहितं
कुरु
मानसं
च
॥
गोस्वामी श्री तुलसीदासजी
प्रभु श्री रामजी
की वंदना के
बाद उनसे कुछ
मांगते हैं जो
की हमें भी
मांगना चाहिए । हम
प्रभु से धन,
संपत्ति, पुत्र, पौत्र, आरोग्य
मांगते हैं पर
देखें कि गोस्वामीजी
ने क्या मांगा
। गोस्वामीजी कहते
हैं कि प्रभु
सबकी अंतरात्मा में
छिपे भाव को
जानते हैं और
प्रभु को पता
है कि जो
भक्त मांगने जा
रहा है उसके
अलावा उसके हृदय
में दूसरी कोई
इच्छा है की
नहीं । पहली
बात जो गोस्वामीजी
मांगते हैं वह
प्रभु की पूर्ण
भक्ति मांगते हैं,
जो सबसे ज्यादा
महत्वपूर्ण है ।
दूसरी बात जो
गोस्वामीजी मांगते हैं वह
यह कि प्रभु
उनके मन को
सभी विकारों और
दोषों से रहित
कर दे ।
हमें सोचना चाहिए
कि क्या हम
भी प्रभु से
यही मांगते हैं
।
5/मंगलाचरण/3
अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं
दनुजवनकृशानुं
ज्ञानिनामग्रगण्यम्
।
सकलगुणनिधानं
वानराणामधीशं
रघुपतिप्रियभक्तं
वातजातं
नमामि
॥
श्री सुंदरकांडजी के प्राण
प्रभु श्री हनुमानजी
की यह अदभुत
वंदना है ।
यह श्री रामचरितमानसजी
का एक अमर
मंगलाचरण है ।
गोस्वामी श्री तुलसीदासजी
वह कार्य करते
हैं जो प्रभु
श्री रामजी को
सबसे प्रिय लगता
है । अपने
परम भक्त को
विशेषणों से सजता
हुआ देख प्रभु
हर्षित हो उठते
हैं । गोस्वामीजी
ने प्रभु श्री
रामजी के प्राणप्रिय
भक्त प्रभु श्री
हनुमानजी के लिए
विशेषणों की झड़ी
लगा दी ।
गोस्वामीजी कहते हैं
प्रभु श्री हनुमानजी
अतुल्य बल के
धाम हैं ।
वे सोने के
पर्वत में जितनी
कांति होती है
उससे भी अधिक
कांतियुक्त शरीर वाले
हैं । वे
दैत्यों का विध्वंस
करने में अग्निरूप
हैं । वे
ज्ञानियों के शिरोमणि,
परम ज्ञानी और
संपूर्ण सद्गुणों से संपन्न
हैं । कोई
भी ऐसा ज्ञान
या सद्गुण नहीं
जो प्रभु श्री
हनुमानजी में न
हो । फिर
जो गोस्वामीजी कहते
हैं वह बड़ा
हृदयस्पर्शी, मार्मिक और सत्य
वचन है ।
गोस्वामीजी सीधे-सीधे
कह देते हैं
कि वे प्रभु
श्री रामजी के
"सबसे प्रिय भक्त" प्रभु
श्री हनुमानजी को
प्रणाम करते हैं
। इसमें कोई
दो राय नहीं
कि प्रभु श्री
रामजी को अपने
प्राणों से भी
ज्यादा प्रभु श्री हनुमानजी
प्रिय हैं ।
प्रभु श्री हनुमानजी
से ज्यादा प्रिय
प्रभु श्री रामजी
को अन्य कोई
भी नहीं है
।
5/1/2
चलेउ हरषि हियँ
धरि
रघुनाथा
॥
इस चौपाई में प्रभु
श्री हनुमानजी हमें
बताते और सिखाते
हैं कि कोई
भी कार्य करने
से पहले हमें
क्या करना चाहिए
। जब प्रभु
श्री हनुमानजी भगवती
सीता माता की
खोज में सागरदेवजी
को पार कर
लंका जाने को
तैयार हुए तो
सबसे पहले उन्होंने
प्रभु श्री रामजी
को अपने हृदय
में याद किया
और उन्हें हृदय
में धारण करके
हर्षित होकर चले
। प्रभु को
किसी भी कार्य
से पहले याद
करना और प्रभु
को हृदय में
धारण करके अपने
साथ रखने से
हमें उस कार्य
में निश्चित सफलता
मिलती है ।
5/1/4
जिमि अमोघ रघुपति
कर
बाना
।
एही
भाँति
चलेउ
हनुमाना
॥
गोस्वामी श्री तुलसीदासजी
इस चौपाई में
प्रभु के भक्त
की शक्ति का
प्रतिपादन करते हैं
। प्रभु के
भक्त में प्रभु
की शक्ति गतिशील
हो जाती है
। गोस्वामीजी कहते
हैं कि प्रभु
का अमोघ बाण
चलता है तो
अपने लक्ष्य भेदे
बिना कभी वापस
नहीं आता, चाहे
बीच में कितने
भी विघ्न क्यों
न आ जाए
। वैसे ही
प्रभु श्री हनुमानजी
प्रभु के अमोघ
बाण की तरह
सागरदेवजी को लांघते
हुए लंका की
ओर चले ।
5/1/दोहा
राम काजु कीन्हें
बिनु
मोहि
कहाँ
बिश्राम
॥
गोस्वामी श्री तुलसीदासजी
इस दोहे में
प्रभु भक्त की
स्थिति बताते हैं ।
प्रभु के भक्त
को प्रभु कार्य
के पूर्ण होने
पर ही विश्राम
मिलता है ।
प्रभु कार्य पूर्ण
हुए बिना वह
जरा भी असावधानी
या आलस्य नहीं
करता । प्रभु
श्री हनुमानजी जब
लंका जा रहे
थे तो श्री
मैनाक पर्वत को
समुद्रदेवजी ने भेजा
कि उन पर
बैठकर वे थोड़ा
विश्राम लें ।
प्रभु श्री हनुमानजी
ने श्री मैनाक
पर्वत को आदर
दिया और स्पर्श
कर प्रणाम किया
और फिर जो
कहा वह वाक्य
अमर हो गया
। वे बोले
कि प्रभु का
कार्य पूरा हुए
बिना उन्हें न
कहीं विश्राम लेना
है और न
विश्राम की उन्हें
कोई आवश्यकता है
।
5/2/5
जस जस सुरसा
बदनु
बढ़ावा
।
तासु
दून
कपि
रूप
देखावा
॥
सत
जोजन
तेहिं
आनन
कीन्हा
।
अति
लघु
रूप
पवनसुत
लीन्हा
॥
इस चौपाई में प्रभु
श्री हनुमानजी के
दो बहुत सुंदर
भाव हमें देखने
को मिलते हैं
। जब देवतागणों
ने सर्पों की
माता सुरसा को
प्रभु श्री हनुमानजी
की परीक्षा लेने
भेजा तो जैसे-जैसे सुरसा
माता ने अपना
मुख प्रभु श्री
हनुमानजी के लिए
बड़ा करना शुरू
किया प्रभु श्री
हनुमानजी ने भी
प्रभु श्री रामजी
की कृपा से
उनके भीतर स्थित
पराक्रम को दिखाया
और अपना कद
दुगुना करते गए
। जब सुरसा
माता को अपना
मुख सौ योजन
का करना पड़ा
तो प्रभु श्री
हनुमानजी तुरंत लघु रूप
होकर उनके मुख
में प्रवेश करके
और सुरसा माता
मुँह बंद करे
उससे पहले ही
वापस बाहर निकल
आए । प्रभु
श्री हनुमानजी ने
सर्वप्रथम अपना कद
बढ़ाकर दिखाया कि प्रभु
कृपा से उनमें
कितना पराक्रम है
फिर लघु बनकर
दिखाया कि वे
इतने लघु ही
हैं क्योंकि जो
इतना बड़ा उनका
पराक्रम है वह
केवल और केवल
प्रभु का है
और प्रभु की
कृपा से ही
है ।
5/2/दोहा
राम काजु सबु
करिहहु
तुम्ह
बल
बुद्धि
निधान
।
सर्पों की माता
सुरसा ने प्रभु
श्री हनुमानजी की
परीक्षा लेकर उन्हें
उत्तीर्ण किया और
कहा कि आप
प्रभु कृपा से
बल और बुद्धि
के भंडार हैं
। यह बात
सत्य है कि
प्रभु श्री रामजी
की परम भक्ति
के कारण प्रभु
श्री हनुमानजी में
अतुलनीय बल और
बुद्धि है ।
उनके जैसा बलवान
और बुद्धिमान त्रिलोकी
में कोई नहीं
है । यह
बात स्वयं प्रभु
श्री रामजी ने
ऋषि श्री वशिष्ठजी
को श्रीराम राज्य
की स्थापना के
बाद भी कही
थी ।
5/3/5
प्रभु प्रताप जो
कालहि
खाई
॥
प्रभु श्री हनुमानजी
ने जो पुरुषार्थ
करके श्री समुद्रदेवजी
को लांघा उसका
वर्णन करते हुए
प्रभु श्री महादेवजी
भगवती पार्वती माता
को कहते हैं
कि यह सब
प्रभु श्री रामजी
के प्रताप का
ही फल है
। प्रभु श्री
रामजी जिस पर
प्रसन्न होते हैं
या जो प्रभु
श्री रामजी का
कार्य करता है,
प्रभु कृपा से
उसमें इतना प्रताप
जागृत हो जाता
है कि वह
काल को भी
खा जाए तो
कम है ।
5/3/छंद
रघुबीर सर तीरथ
सरीरन्हि
त्यागि
गति
पैहहिं
सही
॥
प्रभु श्री हनुमानजी
ने पर्वत पर
चढ़कर जब प्रथम
बार लंका देखी
और उसमें जो
दुष्ट राक्षसों को
देखा उसका वर्णन
गोस्वामी श्री तुलसीदासजी
इस छंद में
करते हैं ।
कुछ वर्णन करने
के बाद गोस्वामीजी
कहते हैं कि
वे पूरा वर्णन
नहीं कर रहे
और संक्षिप्त में
ही कह रहे
हैं क्योंकि वे
जानते हैं कि
कुछ समय के
बाद ही वे
सब मरने वाले
हैं । पर
जिस तरह से
वे राक्षस मरेंगे
उसका वर्णन गोस्वामीजी
ने बहुत सटीक
किया है ।
गोस्वामीजी कहते हैं
कि वे प्रभु
के चलाए बाणरूपी
तीर्थ में अपना
शरीर त्यागकर परम
गति को प्राप्त
होंगे । प्रभु
के बाण को
गोस्वामीजी ने तीर्थ
की उपमा दी
है जिसके कारण
प्राण त्यागकर उन
राक्षसों का उद्धार
होगा और उन्हें
मोक्ष मिलेगा ।
5/4/दोहा
तात स्वर्ग अपबर्ग
सुख
धरिअ
तुला
एक
अंग
।
तूल
न
ताहि
सकल
मिलि
जो
सुख
लव
सतसंग
॥
लंका की पहरेदारी
कर रही लंकिनी
को जब प्रभु
श्री हनुमानजी ने
घूंसा मारा तो
वह खून की
उल्टी करते हुए
गिरी और फिर
संभलकर उठी और
व्याकुल वाणी से
बोली कि यह
उसका बहुत बड़ा
पुण्य है जो
कि उसे प्रभु
श्री रामजी के
दूत के दर्शन
का सौभाग्य मिल
रहा है ।
फिर जो लंकिनी
ने कहा वह
श्री रामचरितमानसजी का
एक अमर दोहा
है । वह
बोली कि स्वर्ग
के सभी सुख
और यहाँ तक
कि मोक्ष को
भी तराजू के
एक पलड़े में
रख दिया जाए
तो भी वे
सभी मिलकर भी
दूसरे पलड़े में
रखे क्षणमात्र के
सत्संग के सुख
की बिलकुल बराबरी
नहीं कर सकते
। सत्संग का
लाभ स्वर्ग के
सुख और मोक्ष
पर भी भारी
पड़ता है ।
सच्चा सत्संग हमारा
जीवन बदलकर रख
देता है और
हमारे जीवन को
प्रभुमय बना देता
है । पूरा
जीवन ही प्रभुमय
हो जाए इससे
बड़ा लाभ और
कुछ हो ही
नहीं सकता ।