श्रीसुंदरकांड भावार्थ नवाह्न पारायण (Day 7)

5/39/3 

प्रनतारति भंजन रघुनाथा ॥

श्री विभीषणजी कहते हैं कि प्रभु अपने शरणागत हुए जीव के दुःख का समूल नाश करने वाले हैं जब कोई जीव अपने जीवन का दुःख लेकर संसार से हारकर प्रभु की शरण में आता है तो करुणानिधान प्रभु उसे तुरंत स्वीकार करते हैं और उसके दुःख का नाश करते हैं

 

5/39/4 

सरन गएँ प्रभु ताहु न त्यागा । बिस्व द्रोह कृत अघ जेहि लागा ॥ जासु नाम त्रय ताप नसावन । सोइ प्रभु प्रगट समुझु जियँ रावन ॥

श्री विभीषणजी रावण से कहते हैं कि जिन प्रभु का नाम लेने मात्र से तीनों तापों का नाश होता है वे प्रभु ही मनुष्य अवतार लेकर प्रकट हुए हैं श्री विभीषणजी कहते हैं कि प्रभु इतने दयालु और कृपालु हैं कि जिस जीव को संपूर्ण जगत से द्रोह करने का पाप भी लगा हुआ है वह जीव भी अगर प्रभु की शरण में चला जाता है तो प्रभु उसे सहर्ष स्वीकार करते हैं और किसी भी अवस्था में उसका त्याग नहीं करते इसलिए श्री विभीषणजी विनती करके रावण को कहते हैं कि वह मान, मोह और मद को त्यागकर प्रभु के शरणागत हो प्रभु का भजन करे क्योंकि इसमें ही उसकी भलाई है

 

5/42/दोहा          

जिन्ह पायन्ह के पादुकन्हि भरतु रहे मन लाइ । ते पद आजु बिलोकिहउँ इन्ह नयनन्हि अब जाइ ॥

जब रावण ने ठोकर मारकर श्री विभीषणजी को त्याग दिया तो श्री विभीषणजी ने प्रभु श्री रामजी की शरण में जाने का मन बना लिया और मन में हर्षित हो उठे उनके हर्ष का कारण था कि वे अब सौभाग्य से प्रभु के उन श्रीकमलचरणों का दर्शन करेंगे जो सेवकों को सुख देने वाले हैं, जिनके स्पर्श से भगवती अहिल्याजी तर गई और जिन्होंने दंडक वन को विचरण करके पवित्र कर दिया जिन श्रीकमलचरणों को भगवती सीता माता और देवों के देव प्रभु श्री महादेवजी अपने हृदय में धारण करके रखते हैं और जिन श्रीकमलचरणों में श्री भरतलालजी ने अपना मन लगा रखा है आज अहोभाग्य से उनका दर्शन श्री विभीषणजी को होगा

 

5/43/4 

मम पन सरनागत भयहारी ॥

जब श्री विभीषणजी प्रभु श्री रामजी की शरण में आए और श्री सुग्रीवजी ने अपना मत दिया कि उन्हें शरण नहीं देना चाहिए तो प्रभु ने जो कहा वह बहुत महत्वपूर्ण है प्रभु बोले कि उनका प्रण है कि जो उनकी शरण में आता है उसके सारे अपराधों को भुलाकर उसे शरण देना और उसे सभी भयों से अभय कर देना यह प्रभु का कितना बड़ा प्रण है और शरणागत प्राणी के लिए कितनी बड़ी आशा की किरण है अगर प्रभु शरण दें तो जीव की कितनी बड़ी दुर्गति होगी इसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते

 

5/43/5 

सरनागत बच्छल भगवाना ॥

शरणागत को शरण देने का प्रभु श्री रामजी का प्रण जैसे ही प्रभु श्री हनुमानजी ने सुना वे अत्यंत हर्षित हो गए प्रभु श्री हनुमानजी विचार करने लगे कि प्रभु कितने शरणागतवत्सल हैं यानी अपनी शरण में आए हुए जीव को एक परमपिता की तरह प्रेम करने वाले और उसकी हर प्रकार से रक्षा करने वाले हैं

 

5/44/1 

कोटि बिप्र बध लागहिं जाहू । आएँ सरन तजउँ नहिं ताहू ॥ सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं । जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं ॥

मानव हत्या कितना बड़ा पाप है, उसमें भी विप्र जो सबसे पूजनीय हैं और भूलोक के देव हैं, उनकी हत्या कितना जघन्य पाप है प्रभु कहते हैं कि करोड़ों विप्रों की हत्या का पाप भी जिसे लगा हो वह घोर पापी भी अगर प्रभु की शरण में जाता है तो प्रभु उसे भी कभी नहीं त्यागते प्रभु शरणागत के इतने भीषण पाप पर भी उसे नहीं त्यागते, यह प्रभु की कितनी विलक्षण करुणा है प्रभु इससे भी आगे की बात कहते हैं कि जो जीव प्रभु के सन्मुख होता है उसके करोड़ों जन्मों के संचित पाप भी प्रभु क्षण में नष्ट कर देते हैं इतने जघन्य पाप और फिर करोड़ों जन्मों के संचित पाप सभी का क्षय प्रभु की शरण में आने पर हो जाता है शरणागति का कितना बड़ा महत्व यहाँ पर प्रभु बताते हैं

 

5/44/2 

पापवंत कर सहज सुभाऊ । भजनु मोर तेहि भाव न काऊ ॥ जौं पै दुष्ट हृदय सोइ होई । मोरें सनमुख आव कि सोई ॥

प्रभु कहते हैं कि पापी का स्वभाव होता है कि प्रभु का भजन उसे नहीं सुहाता प्रभु कहते हैं कि दुष्ट हृदय के जीव को कभी उसके पाप प्रभु के सन्मुख आने ही नहीं देते क्योंकि उसके पापों को पता होता है कि अगर वह जीव प्रभु के सम्मुख चला गया तो तत्काल उसके पापों का क्षय हो जाएगा

 

5/44/3 

निर्मल मन जन सो मोहि पावा । मोहि कपट छल छिद्र न भावा ॥

प्रभु श्री रामजी कहते हैं कि जो जीव निर्मल हृदय का होता है वही प्रभु तक पहुँच पाता है जो जीव अपने हृदय में कपट और छल रखता है, ऐसा जीव प्रभु की प्राप्ति नहीं कर पाता

 

5/44/4 

जौं सभीत आवा सरनाई । रखिहउँ ताहि प्रान की नाईं ॥

प्रभु श्री रामजी कहते हैं कि अगर रावण का भाई भयभीत होकर प्रभु की शरण में आया है तो प्रभु उसे वैसे रखेंगे जैसे कोई अपने प्राणों को रखता है सिद्धांत यह है कि शरणागत का प्रभु कभी भी, किसी भी परिस्थिति में त्याग नहीं करते, चाहे वह कोई भी हो और उसका अपराध कैसा भी हो यह प्रभु की कितनी विलक्षण करुणा है

 

5/45/दोहा          

श्रवन सुजसु सुनि आयउँ प्रभु भंजन भव भीर । त्राहि त्राहि आरति हरन सरन सुखद रघुबीर ॥

श्री विभीषणजी प्रभु श्री रामजी से कहते हैं कि वे अपने कानों से प्रभु का सुयश सुनकर आए हैं उन्हें पता है कि प्रभु जन्म-मृत्यु के भय का नाश करने वाले, दुखियों के सभी दुःखों को दूर करने वाले और शरणागत को शरण में लेकर सुख देने वाले हैं श्री विभीषणजी की दीनता और दीन वचन प्रभु को बहुत प्रिय लगे